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स्वच्छ भारत और मैली सियासत

मैं अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय की सड़कों पे जब घूम रहा था तभी मुझे २ अक्टूबर २०१४ का दिन याद  आ रहा था, जिस दिन देश के वर्तमान प्रधानमन्त्री-जी ने अपने तथाकथित सर्वाधिक कामयाब कहे जाने वाले “स्वच्छ भारत अभियान” का  विमोचन किया था. उनहोंने चन्द वर्षों के भीतर ही पूरे देश को साफ़-सुथरा बनाने का संकल्प उठाया था और यह सौगंद उठाई थी की देश को स्वच्छ बनाकर ही दम लेंगे. और जिसके लिए उनहोंने खुद तो झाड़ू पकड़ी ही और साथ ही सभी पदाधिकारियों से लेकर विश्वविध्यालय के कुलपतियों तक को झाड़ू थमा दी.

फिर क्या था! इस तरह से चल पडा स्वच्छ भारत अभियान, इसके बाद हर साल २ अक्टूबर के दिन नेताओं से लेकर हाकिम तक सभी झाड़ू पकड़ते और एक बार फिर देश को गंदगी-मुक्त बनाने का प्रण करते. उनके हिसाब से शायद एक दिन झाड़ू हाथ में पकड़कर हिलाने मात्र से इस देश की गन्दगी दूर हो जाएगी और साथ ही दिमाग में भरी गन्दगी भी.

लेकिन यह बड़ी अजीब बात रही की मोदी-जी से लेकर उनके सभी चमचे तक इस अभियान के तहत अपना योगदान देने व इसका श्रेय लेने में तत्पर रहे. किन्तु अपने आप को देश के विद्यार्थियों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाली RSS/BJP की विद्यार्थी परिषद् “ABVP” ने इसका अनुसरण नहीं किया. बल्कि उनहोंने तो इस अभियान का उल्टा ही रुख अपनाया, जब मोदी-जी ने कहा की “गन्दगी मत फैलाओ” तो इन्होंने विश्वविद्यालयों में जमकर करकट किया. फिर वो चाहे भौतिक हो या रासायनिक, हर तरह की गन्दगी करने में तो इनको महारत हासिल है शायद. तभी तो इलेक्शन आते ही पता नहीं इन्हें क्या भूत सवार हो जाता है की ये लोग सड़कों को पैम्पलेट से ऐसे पाट देते हैं जैसे की सड़कें इनके अब्बा की हों. और शायद ये सच ही तो है!  चारो और बस कागज़ ही कागज़.

ये बात गौरतलब है की सभी को चुनाव जीतने का उत्साह होता है, किन्तु इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं है की आप चारो और गन्दगी फैलाएं, कागज़ की बर्बादी करें और मनमाने ढंग से धन का व्यय क्करें. अरे यदि आपको अपने आप पे पूरा भरोसा है तो मेनिफेस्टो व साफ़-गोई से चुनाव लड़ें और जीतकर दिखाएं. यदि ऐसा जिस दिन होगा तब आपकी असल राष्ट्रवादिता ज़ाहिर होगी. ये उल-जलूल पैसे व सत्ता के दुरूपयोग के दम पे देश-भक्ति दिखाना, यह कहाँ की राष्ट्रभक्ति है.

आज जिस तरह से छात्र राजनीति भी दलगत व अवसरवाद के नक़्शे-कदम पर चल पड़ी है, जिससे ये आंकलन करना मुश्किल हो चला है की यह वो विश्वविद्यालय वाली राजनीति है जो छात्रों के हितों व शिक्षा के निराकरण हेतु है या ये मात्र उन राजनैतिक दलों के लिए भीड़ इकठ्ठा करने, उनका पिछलग्गू बन्ने, अथवा उनका एजेंडा पूरा करने भर के लिए सक्रीय है.

और एक बात मैं यहाँ स्पष्ट कर देना चाहूँगा की यह मेरी टिप्पड़ियां केवल किसी दल के खिलाफ नहीं हैं और न ही केवल ABVP मात्र के लिए ही. इस परिषद् के अलावा अन्य छात्र संगठन भी कुछ इसी तरह के हथकंडे अपनाते हैं. वो भी चुनाव की धुंध में इस कदर लीन हो जाते हैं की उन्हें भी छात्र-हित ध्यान नहीं रहते और गंदगी करने में वे भी बराबर के भागीदार हैं. ये हो सकता है की वे परिषद् से कुछ कम कचरा करते हों पर करते तो वो भी हैं..

परिषद् का दोष इस लिए ज्यादा है क्योंकि ये जिस जमात से आते हैं, उनके साहब एक अभियान लांच करते हैं और सभी को उसका अनुसरण करने को बोलते हैं. पर हाल ये है की उनकी खुद की विद्यार्थी परिषद् उसका उलट रुख अपनाती है.  अरे भाई, अगर आप सरकार की नीतियों का खुले आम समर्थन करते हैं, और उन्हें जस्टिफाई भी करते हैं. तो ये दोगलापन क्यों?

इस लिए ये कहा जाता है की “यदि कथनी और करनी सामान नहीं तो, फिर काहे के हरिश्चंद”.  तो क्या इससे ये ज़ाहिर नहीं होता की यह केवल सत्ता का दुरूपयोग की राजनीति व अवसरवाद की राजनीति अथवा केवल झूंठ व दिखावे की सियासत मात्र की द्योतक बन चुकी है ये छात्र राजनीति भी..

इस लिए मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय की सड़कों पे टहलते हुए वो २ अक्टूबर का दावा याद आ गया जिसमे देश को स्वच्छ रखने की कसमें खाई गयी थीं, पर आज जब हम इन सड़कों को चुनावी इश्तेहारों से अटा पाते हैं तो आज का ये चुनाव और वो जुमलो वाला चुनाव, इन दोनों में कोई अंतर नहीं दीखता.

शायद हम राजनीति के दलदल में इस कदर लीन हो चुके हैं की हमें इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता की छात्रों के मुद्दे पुरे होते हैं या नहीं, उनकी समस्याओं का समाधान होता है या नहीं, या ये जो सड़कें कागजों से बिछीं हैं यह गलत है या सही. हम तो पीट्जा बर्गर के रसास्वादन, मूवी टिकेट्स की फ़िराक, चंद नोटों के लालच और अन्य रासायनिक पदार्थों की आस में ये सब भूल जाते हैं. और शायद भूलना भी चाहिए, क्योंकि हमें तो भूलने की बीमारी-सी है न..

धीरू यादव

 

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